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मानसरोवर--मुंशी प्रेमचंद जी


मानसरोवरअलग्योझा मुंशी प्रेम मानसरोवरअलग्योझा मुंशी प्रेम चंद
6
रग्घू लड़कों को लेकर बाग से लौटा, तो देखा मुलिया अभी तक झोंपड़े में खड़ी है। बोला—तू जाकर खा क्यों नहीं लेती? मुझे तो इस बेला भूख नहीं है।
मुलिया ऐंठकर बोली—हाँ, भूख क्यों लगेगी! भाइयों ने खाया, वह तुम्हारे पेट में पहुँच ही गया होगा।
रग्घू ने दॉँत पीसकर कहा—मुझे जला मत मुलिया, नहीं अच्छा न होगा। खाना कहीं भागा नहीं जाता। एक बेला न खाऊँगा, तो मर न जाउँगा! क्या तू समझती हैं, घर में आज कोई बात हो गई हैं? तूने घर में चूल्हा नहीं जलाया, मेरे कलेजे में आग लगाई है। मुझे घमंड था कि और चाहे कुछ हो जाए, पर मेरे घर में फूट का रोग न आने पाएगा, पर तूने घमंड चूर कर दिया। परालब्ध की बात है।
मुलिया तिनककर बोली—सारा मोह-छोह तुम्हीं को है कि और किसी को है? मैं तो किसी को तुम्हारी तरह बिसूरते नहीं देखती।
रग्घू ने ठंडी सॉँस खींचकर कहा—मुलिया, घाव पर नोन न छिड़क। तेरे ही कारन मेरी पीठ में धूल लग रही है। मुझे इस गृहस्थी का मोह न होगा, तो किसे होगा? मैंने ही तो इसे मर-मर जोड़ा। जिनको गोद में खेलाया, वहीं अब मेरे पट्टीदार होंगे। जिन बच्चों को मैं डॉँटता था, उन्हें आज कड़ी ऑंखों से भी नहीं देख सकता। मैं उनके भले के लिए भी कोई बात करुँ, तो दुनिया यही कहेगी कि यह अपने भाइयों को लूटे लेता है। जा मुझे छोड़ दे, अभी मुझसे कुछ न खाया जाएगा।
मुलिया—मैं कसम रखा दूँगी, नहीं चुपके से चले चलो।
रग्घू—देख, अब भी कुछ नहीं बिगड़ा है। अपना हठ छोड़ दे।
मुलिया—हमारा ही लहू पिए, जो खाने न उठे।
रग्घू ने कानों पर हाथ रखकर कहा—यह तूने क्या किया मुलिया? मैं तो उठ ही रहा था। चल खा लूँ। नहाने-धोने कौन जाए, लेकिन इतनी कहे देता हूँ कि चाहे चार की जगह छ: रोटियाँ खा जाऊँ, चाहे तू मुझे घी के मटके ही में डुबा दे: पर यह दाग मेरे दिल से न मिटेगा।
मुलिया—दाग-साग सब मिट जाएगा। पहले सबको ऐसा ही लगता है। देखते नहीं हो, उधर कैसी चैन की वंशी बज रही है, वह तो मना ही रही थीं कि किसी तरह यह सब अलग हो जाएँ। अब वह पहले की-सी चॉँदी तो नहीं है कि जो कुछ घर में आवे, सब गायब! अब क्यों हमारे साथ रहने लगीं?
रग्घू ने आहत स्वर में कहा—इसी बात का तो मुझे गम है। काकी ने मुझे ऐसी आशा न थी।
रग्घू खाने बैठा, तो कौर विष के घूँट-सा लगता था। जान पड़ता था, रोटियाँ भूसी की हैं। दाल पानी-सी लगती। पानी कंठ के नीचे न उतरता था, दूध की तरफ देखा तक नहीं। दो-चार ग्रास खाकर उठ आया, जैसे किसी प्रियजन के श्राद्ध का भोजन हो।
रात का भोजन भी उसने इसी तरह किया। भोजन क्या किया, कसम पूरी की। रात-भर उसका चित्त उद्विग्न रहा। एक अज्ञात शंका उसके मन पर छाई हुई थी, जेसे भोला महतो द्वार पर बैठा रो रहा हो। वह कई बार चौंककर उठा। ऐसा जान पड़ा, भोला उसकी ओर तिरस्कार की आँखों से देख रहा है।
वह दोनों जून भोजन करता था: पर जैसे शत्रु के घर। भोला की शोकमग्न मूर्ति ऑंखों से न उतरती थी। रात को उसे नींद न आती। वह गाँव में निकलता, तो इस तरह मुँह चुराए, सिर झुकाए मानो गो-हत्या की हो।
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रग्घू लड़कों को लेकर बाग से लौटा, तो देखा मुलिया अभी तक झोंपड़े में खड़ी है। बोला—तू जाकर खा क्यों नहीं लेती? मुझे तो इस बेला भूख नहीं है।
मुलिया ऐंठकर बोली—हाँ, भूख क्यों लगेगी! भाइयों ने खाया, वह तुम्हारे पेट में पहुँच ही गया होगा।
रग्घू ने दॉँत पीसकर कहा—मुझे जला मत मुलिया, नहीं अच्छा न होगा। खाना कहीं भागा नहीं जाता। एक बेला न खाऊँगा, तो मर न जाउँगा! क्या तू समझती हैं, घर में आज कोई बात हो गई हैं? तूने घर में चूल्हा नहीं जलाया, मेरे कलेजे में आग लगाई है। मुझे घमंड था कि और चाहे कुछ हो जाए, पर मेरे घर में फूट का रोग न आने पाएगा, पर तूने घमंड चूर कर दिया। परालब्ध की बात है।
मुलिया तिनककर बोली—सारा मोह-छोह तुम्हीं को है कि और किसी को है? मैं तो किसी को तुम्हारी तरह बिसूरते नहीं देखती।
रग्घू ने ठंडी सॉँस खींचकर कहा—मुलिया, घाव पर नोन न छिड़क। तेरे ही कारन मेरी पीठ में धूल लग रही है। मुझे इस गृहस्थी का मोह न होगा, तो किसे होगा? मैंने ही तो इसे मर-मर जोड़ा। जिनको गोद में खेलाया, वहीं अब मेरे पट्टीदार होंगे। जिन बच्चों को मैं डॉँटता था, उन्हें आज कड़ी ऑंखों से भी नहीं देख सकता। मैं उनके भले के लिए भी कोई बात करुँ, तो दुनिया यही कहेगी कि यह अपने भाइयों को लूटे लेता है। जा मुझे छोड़ दे, अभी मुझसे कुछ न खाया जाएगा।
मुलिया—मैं कसम रखा दूँगी, नहीं चुपके से चले चलो।
रग्घू—देख, अब भी कुछ नहीं बिगड़ा है। अपना हठ छोड़ दे।
मुलिया—हमारा ही लहू पिए, जो खाने न उठे।
रग्घू ने कानों पर हाथ रखकर कहा—यह तूने क्या किया मुलिया? मैं तो उठ ही रहा था। चल खा लूँ। नहाने-धोने कौन जाए, लेकिन इतनी कहे देता हूँ कि चाहे चार की जगह छ: रोटियाँ खा जाऊँ, चाहे तू मुझे घी के मटके ही में डुबा दे: पर यह दाग मेरे दिल से न मिटेगा।
मुलिया—दाग-साग सब मिट जाएगा। पहले सबको ऐसा ही लगता है। देखते नहीं हो, उधर कैसी चैन की वंशी बज रही है, वह तो मना ही रही थीं कि किसी तरह यह सब अलग हो जाएँ। अब वह पहले की-सी चॉँदी तो नहीं है कि जो कुछ घर में आवे, सब गायब! अब क्यों हमारे साथ रहने लगीं?
रग्घू ने आहत स्वर में कहा—इसी बात का तो मुझे गम है। काकी ने मुझे ऐसी आशा न थी।
रग्घू खाने बैठा, तो कौर विष के घूँट-सा लगता था। जान पड़ता था, रोटियाँ भूसी की हैं। दाल पानी-सी लगती। पानी कंठ के नीचे न उतरता था, दूध की तरफ देखा तक नहीं। दो-चार ग्रास खाकर उठ आया, जैसे किसी प्रियजन के श्राद्ध का भोजन हो।
रात का भोजन भी उसने इसी तरह किया। भोजन क्या किया, कसम पूरी की। रात-भर उसका चित्त उद्विग्न रहा। एक अज्ञात शंका उसके मन पर छाई हुई थी, जेसे भोला महतो द्वार पर बैठा रो रहा हो। वह कई बार चौंककर उठा। ऐसा जान पड़ा, भोला उसकी ओर तिरस्कार की आँखों से देख रहा है।
वह दोनों जून भोजन करता था: पर जैसे शत्रु के घर। भोला की शोकमग्न मूर्ति ऑंखों से न उतरती थी। रात को उसे नींद न आती। वह गाँव में निकलता, तो इस तरह मुँह चुराए, सिर झुकाए मानो गो-हत्या की हो।

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